कुमाऊँ, संस्कृत शब्द कूर्मांचल के पर्याय के रूप में प्रयुक्त है। किंवदंती
है कि, भगवान श्री विष्णु का दूसरा अवतार 'कूर्म' (कछुए) का हुआ था और यह
अवतार चंपावती नदी के पूर्व कूर्म-पर्वत पर हुआ था। इस संबंध में कुमाऊँ का
इतिहास लिखने वाले पंडित बद्रीदत्त पांडेय ने उल्लेख किया है कि, "इस प्रांत
का नाम कूर्मांचल या कुमाऊँ होने के विषय में यह किंवदंती कुमाऊँ के लोगों में
प्रचलित है कि, जब विष्णु भगवान का दूसरा अवतार कूर्म अथवा कछुए का हुआ, तो वह
अवतार कहा जाता है कि, चंपावती नदी के पूर्व कूर्म-पर्वत में, जिसे आजकल
कांडादेव या कानदेव कहते हैं। तीन वर्ष तक खड़ा रहा। उस समय हाहा हूहू देवतागण
तथा नारदादि मुनीश्वरों ने उसकी प्रशंसा की। उस कूर्म (कच्छप) अवतार के चरणों
का चिह्न पत्थर में हो गया और वह अब तक विद्यमान होना कहा जाता है। तब से इस
पर्वत का नाम कूर्मांचल (कूर्म अचल) हो गया। कूर्मांचल का प्राकृत रूप
बिगड़ते-बिगड़ते 'कुमू' बन गया और यही शब्द भाषा में कुमाऊँ में परिवर्तित हो
गया।"1
बद्रीदत्त जी ने साथ ही यह भी उल्लेख किया है कि, आरंभ में कुमाऊँ या
कूर्मांचल सिर्फ चंपावत व आस-पास के क्षेत्रों के लिए प्रयुक्त होता था, किंतु
धीरे-धीरे इसका क्षेत्र विस्तार होता रहा और चंद राजाओं ने इस नाम को व्यापक
रूप में प्रचलित किया। आज यह कुमाऊँ कमिश्नरी है और इसमें नैनीताल, अल्मोड़ा,
पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत, उधमसिंह नगर जिलों के सारे इलाके सम्मिलित हैं।
कुमाऊँ का इतिहास काफी प्राचीन है। इस क्षेत्र में भारत के विभिन्न हिस्सों
से, समय-समय पर लोग तीर्थ-यात्रा, पर्यटन, आजीविका व अन्य कारणों से आते रहे
हैं। बहुत बार इस क्षेत्र के राजाओं द्वारा राज-कार्य में सहयोग के लिए
विद्वान, योद्धा, धर्मगुरु व व्यापारी-गण लाए गए और बहुत बार मुस्लिम आक्रमणों
के दौरान धर्मान्तरण से बचने के लिए भी लोग इन क्षेत्रों में आए।
परिणाम-स्वरूप कुमाऊँ का क्षेत्र सांस्कृतिक रूप से काफी जीवंत रहा है। यद्यपि
भौगोलिक व आर्थिक कठिनाइयाँ आज भी मौजूद हैं, बावजूद इन प्रतिकूलताओं के यह
अंचल जिजीविषा का अनूठा उदाहरण है। यहाँ की उत्सव-प्रियता उदाहरणीय है। घनघोर
अभावों में भी किस तरह मस्ती बरकरार रखी जा सकती है? इसे देखना हो तो, कुमाऊँ
से बढ़िया कोई अन्य क्षेत्र नहीं होगा। 'होली', कुमाऊँ का उत्साह से मनाया जाने
वाला एक पर्व है। समस्त उत्तर भारत की तरह यहाँ भी सभी नर-नारी इसे
उल्लास-पूर्वक मनाते हैं। फाल्गुन महीने की एकादशी को चीर-बंधन के साथ यह पर्व
प्रारंभ हो जाता है। इस संबंध में, 'कुमाऊँ का इतिहास' में बद्रीदत्त पांडेय
जी ने लिखा है कि, फाल्गुन सुदी 11 को चीर बंधन किया जाता है। कहीं-कहीं 8
अष्टमी को चीर बाँधते हैं। कई लोग आमलकी 11 का व्रत करते हैं। इसी दिन
भद्रा-रहित काल में देवी-देवताओं में रंग डालकर पुनः अपने कपड़ों में रंग
छिड़कते हैं और गुलाल डालते हैं। छरड़ी पर्यन्त नित्य ही रंग और गुलाल की धूम
रहती है। गाना, बजाना, वेश्या-नृत्य, दावत आदि समारोह से होते हैं। ग्रामों
में खड़ी होलियाँ गाई जाती हैं। नकल व प्रहसन भी होते हैं। अश्लील होलियों तथा
अनर्गल बकवाद की भी कमी नहीं रहती। कुमाऊँ में यह त्यौहार 6-7 दिन तक बड़ी
धूम-धाम से मनाया जाता है। सतराली, पाटिया, गंगोली, चंपावत, द्वाराहाट आदि की
होलियाँ प्रसिद्ध हैं। गाँवों में भी प्रायः सर्वत्र बैठकें होती हैं। मिठाई व
गुड़ बाँटा जाता है।"2
उपर्युक्त उद्धरण कुमाऊँनी समाज में 'होली' के उत्सव के व्यापक प्रसार,
स्वीकृति और मनाने के तौर-तरीकों पर सम्यक टिप्पणी है। इससे यह भी पता चलता है
कि, इस अवसर पर लोग मस्ती में होली गीत गाते हैं। कुमाऊँ में 'होली गीत' गायन
की समृद्ध परंपरा है। ये होली गीत मुख्यतः 'लोकगीतों' का ही एक विशिष्ट रूप
हैं। यदि कुमाऊँनी होली-गीतों की परंपरा की बात की जाए तो, यह कहना समीचीन
होगा कि, इसका जन्म, ब्रजमंडल में हुआ और वहाँ से चलकर इसने सुंदर प्राकृतिक
वैभव से संपन्न अंचल कुमाऊँ में अपने लिए विशेष स्थान बना लिया। इस संबंध में
कुमाऊँनी होली गीतों के संकलनकर्ता श्री कुलदीप उप्रेती ने भी निष्पक्षता से
स्वीकार किया है कि - "कुमाऊँनी होली-गीतों" को अपनी बोधगम्यता व संगीतात्मकता
के कारण विशिष्टता प्राप्त हुई। इन होलियों में दुरूहता या रहस्यात्मकता न
होने से ये आम आदमी पर अपना प्रभाव छोड़ने में पूर्णतया सफल रही हैं। अपनी
आधार-भूमि ब्रजमंडल से सुदूरवर्ती हिमालय की गोद में बसे रमणीक क्षेत्र तक
पहुँचकर यहाँ ऐसे रमी कि, फिर यहीं की होकर कुमाऊँनी होली के नाम से प्रख्यात
होती हुई जन-जन की कंठहार बन गईं।"3
कुमाऊँनी होली गीत मुख्यतः दो रूपों में गाए जाते हैं। ये रूप हैं - (1) खड़ी
होली (2) बैठकी होली। वस्तुतः ये दो शैलियाँ हैं, गायन की। खड़ी होली, खड़े
होकर, कतारबद्ध होकर होल्यारों द्वारा घर-आँगन, देवालय-प्रांगण आदि में गाई
जाती हैं, जबकि बैठकी होली किसी मेजबान के घर या देव-मंदिरों में बैठकर गाई
जाती है। खड़ी होली प्रायः सूर्योदय से सूर्यास्त के मध्य गाई जाती है। जबकि
बैठकी होली सायं काल से शुरू होकर सुबह तक गाई जाती है। खड़ी होली और बैठकी
होली का एक बड़ा अंतर यह है कि खड़ी होली में गायन का खुला प्रवाह होता है,
जिसमें स्त्री-पुरुष, बाल, वृद्ध, शिक्षित-अशिक्षित सभी सम्मिलित होते हैं।
इसके उलट बैठकी होली अनुभूति प्रधान होती है और इसमें शामिल होने वालों से
संगीत की बुनियादी जानकारी की अपेक्षा होती है। साथ ही इसमें गायक और श्रोता
दो वर्गों में विभक्त रहते हैं और इसमें प्रयुक्त होने वाले वाद्य-यंत्र भी
खड़ी होली की तुलना में काफी अलग होते हैं। बैठकी होली, शास्त्रीय संगीत पर
आधारित होती है। खड़ी का आधार शास्त्रीय नहीं होता है। खड़ी होली में
स्त्री-पुरुष सभी समान रूप से भागीदारी करते हैं। समूह बनाकर/महिलाएँ, अलग से
भी होली-गीतों का गान करती हैं और गान के साथ ही साथ स्वाँग भी करती हैं। कुल
मिलाकर कुमाऊँ का समूचा क्षेत्र होलीमय हो जाता है।
कुमाऊँनी होली गीतों का आधार पारंपरिक रूप से श्रीमद्भागवत, रामायण, महाभारत व
पौराणिक साहित्य है। रामायण और महाभारत महाकाव्यों में समूचे भारतीय जीवन की
प्राणधारा के दर्शन किए जा सकते हैं। यह अकाट्य तथ्य है। इस संबंध में डा.
सत्यव्रत सिन्हा ने स्पष्ट रूप से इस बात को रेखांकित किया है कि - "रामायण और
महाभारत दो ऐसे अन्यतम महाकाव्य हैं, जिनमें संपूर्ण भारतीय जीवन परिलक्षित
हुआ है।"4 भारत की संस्कृति का सौ प्रतिशत उक्त दोनों महाकाव्यों
में अभिव्यक्त है। लोक साहित्य और शिष्ट साहित्य दोनों को अपनी आधार सामग्री
के लिए इन्हीं पर निर्भर रहना पड़ता है।
कुमाऊँनी होली गीतों में राम और कृष्ण के जीवन से जुड़ी कथाएँ बार-बार उठाई
जाती हैं। राम के जीवन का संघर्ष और सीता के वनवासी होने, अपहृत होने का दर्द,
लोक का साझा कष्ट है। ये स्मृतियाँ लोक में रची बसी हैं। इन पर समय और स्थान
के अंतर से कोई बड़ा फर्क दृष्टिगत नहीं होता है। यही कारण है कि, कुमाऊँनी
समाज होली गीतों में स्मरण करते हुए दुखी और सुखी होता रहता है। राम, होली
खेलते हैं। संपूर्ण अवध क्षेत्र उल्लास-मग्न हो जाता है। ऐसे होली गीतों की
भरमार है। थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ ये प्रायः समूचे कुमाऊँ क्षेत्र में
गुनगुनाए जाते हैं। राम और लक्ष्मण होली खेल रहे हैं और समूचा अवध रंग से
सराबोर हो गया है -
होरी खेलत राम लखन जोरी।।
कहा पैरि रघुवर खैलें होरी,
कहा पैरि लछिमन होरी। होरी खेलत राम लखन जोरी।।
मुकुट पैरि श्री राम खेलत हैं,
पहिने चीर लखन होरी। होली खेलत राम लखन जोरी।।
काहे के हाथ मृदंग बिराजे,
काहे के हाथ मजिर जोरी। होरी खेलत राम लखन जोरी।।
रघुवर हाथ मृदंग बिराजै,
लछिमन हाथ मजिर जोरी। होरी खेलत राम लखन जोरी।।
काहिन को सब रंग बन्यो है,
काहे को अबीर उड़ै रोरी। होरी खेलत राम लखन जोरी।।
केशर को सब रंग बन्यो है।
अबीर गुलाल उड़ै रोरी। होरी खेलत राम लखन जोरी।।
अगर चंदन के खंब बने हैं,
रेशम लागि रही डोरी। होरी खेलत राम लखन जोरी।।
कंचन की पिचकारी चलत है,
नगर अवध सब रंग बोरी। होरी खेलत राम लखन जोरी।।5
लोक साहित्य में संपन्न जीवन के ढेरों उल्लेख मिलते हैं। सोने-चाँदी के बर्तन,
रेशमी वस्त्र, केशर के रंग, चंदन के खंभे उपर्युक्त होली गीत में उपलब्ध हैं।
यह बात कहीं न कहीं लोक के जीवन के प्रति उत्साह, भव्य आकांक्षा की अभिव्यक्ति
है। घनघोर विपन्नता और प्रकृति की दुश्वारियों में भी कुमाऊँनी समाज अपनी
अतीत-संपन्नता को याद कर के जीवन के लिए रस पा लेता है।
सीता ने वनवास के समय कठिन जीवन व्यतीत किया था। यह बात लोक को पता है। वह
उनके विपत्ति के समय की बातों को अपनी थाती मानता है। उस कष्ट को याद कर के
बार-बार सहानुभूति और करुणा व्यक्त करता है। निम्न लिखित होती-गीत में इसे
स्पष्टतः देखा जा सकता है -
घर ही रहो हे सुकुमारी,
सीता वन में विपत्ति है भारी।।
काँटे-कंकड़ राह कठिन है,
कोमल देह तुम्हारी।
वन में विपत्ति भारी। घर ही रहो हे सुकुमारी।।
भोजन-वस्त्र मिलें कछु नाहीं,
प्यास लगे है प्राणहारी।
वन में विपत्ति है भारी। घर ही रहो हे सुकुमारी।।
मेघा गरजत-पानी बरसत,
लागत शीत बयारी।
वन में विपत्ति है भारी। घर ही रहो हे सुकुमारी।।
दुष्ट निशाचर वन-वन डोलें,
सब है मनुज के आहारी।
वन में विपत्ति है भारी। घर ही रहो हे सुकुमारी।।"6
समूची रामकथा अपने तमाम सारे उतार-चढ़ाव के साथ और कुछ अन्य के साथ भी 'होली
गीतों' में सुरक्षित है।
राम-कथा के साथ ही कृष्ण के जीवन से जुड़ी कथाएँ होली-गीतों या यों कहें
कुमाऊँनी लोक-मन की अमिट थाती हैं। इनसे लोक, प्रेरणा, प्रभाव शक्ति और
जिजीविषा प्राप्त करता है। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी जीवन कैसे निर्बाध
जिया जाए? यह सामर्थ्य हासिल करता है। श्री कृष्ण की बाल-लीलाएँ, उनके गोपियों
और राधा के साथ शृंगार के प्रसंग, कौरव-पांडव युद्ध में उनकी भूमिका, दुष्टों
के विनाश से जुड़ी ढेरों कथाएँ। उपकथाएँ कुमाऊँनी होलियों का अभिन्न अंग हैं।
इससे यह भी पता चलता है कि, लोक किस तरह श्रुति परंपरा में अपनी सांस्कृतिक
विरासत को सँभालता है?
"ले अवतार गिरधारी, भक्त जनन के दुख टारी।।
केशिया मार्यो कंस को मारो,
यमला अरजुन दे तारी।
भक्त जनन के दुख टारी।
ले अवतार गिरधारी, भक्त जनन के दुख टारी।
सोल सिंगार किए पूतना आई,
दूध पिवत पूतना तारी,
भक्त जनन के दुख टारी
ले अवतार गिरधारी।।
टेर सुनी द्रौपदी की तुमने,
विप्र सुदामा के दुःखहारी।
भक्त जनन के दुख टारी।
ले अवतार गिरधारी।।7
'गंगा' भारतीय संस्कृति का मूल है। भारतीयों के मन में उनकी कितनी महिमा है?
यह जानना है, तो प्रवासी भारतीयों से भली-भाँति जाना जा सकता है। 'मॉरीशस' में
एक तालाब को ही गिरमिटिया होकर गए भारतीयों ने 'गंगा' नाम देकर अपनी संस्कृति,
अपनी पहचान को अक्षुण्ण बनाने का उपक्रम किया है। गंगा के धरती पर उतरने की
कथा सिर्फ लोकगीतों में ही नहीं, अपितु शिष्ट साहित्य में भी प्रमुखता से
वर्णित है। कुमाऊँनी होली-गीतों में बहुशः भगीरथ के गंगा लाने के लिए किए गए
कठोर तप को याद किया गया है -
करी तपस्या घोर कुँवर, भगीरथ गंगा ले आये।
भैरों घाट में बैठे भगीरथ,
करी तपस्या घोर कुँवर, भगीरथ गंगा ले आये।
एक पाँव दो भुजा उठाये,
लीनो पवन आहार कुँवर, भगीरथ गंगा ले आये।
कठिन तपस्या करी भगीरथ,
ब्रह्मा प्रसन्न होय कुँवर, भगीरथ गंगा ले आये।
जो तुम माँगों माँग लो भागीरथ,
जो मन इच्छा होय कुँवर, भगीरथ गंगा ले आये।
हम को ब्रह्मा जी गंगा दीजो,
कुल तारण को जाय कुँवर, भगीरथ गंगा ले आये।"8
प्रयोगधर्मिता लोक-साहित्य की प्रगतिशीलता का निदर्शन है। कुमाऊँनी होली गीत,
राम, कृष्ण, शिव, पार्वती आदि देवी-देवताओं की कथा को सँभालते हुए
सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक परिवर्तनों को भी आसानी से स्वीकार करते हैं और
अपने जीवित होने का प्रमाण देते हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि, भारत की स्वाधीनता
का संघर्ष ऐसा संघर्ष रहा है, जिसने देश के कोने-कोने में स्फूर्ति पैदा करके
समस्त भारतीय जन-मानस को आंदोलन की राह पर अग्रसर कर दिया था। ऐसे में जीवन के
सभी क्षेत्र चाहे वह संगीत का हो, साहित्य का हो या कला का हो, अप्रभावित नहीं
रह सकते थे। ऐसा ही कुछ सुदूर कुमाऊँ क्षेत्र में भी हुआ था। राष्ट्रपिता
महात्मा गांधी ने देश भ्रमण करते हुए कुमाऊँ में भी प्रवास किया था और कुमाऊँ
का क्षेत्र चार्ज हो गया था। इस संबंध में कुलदीप उप्रेती ने लिखा है कि,
"महात्मा गाँधी जून 1929 को अल्मोड़ा पहुँचे और लगभग तीन सप्ताह तक ठहरे। गांधी
जी की इस यात्रा ने संपूर्ण कुमाऊँ में एक अभूतपूर्व चेतना का संचार किया,
जिससे यह क्षेत्र भी अछूता नहीं रहा। स्वाधीनता प्राप्ति की अवधि तक यहाँ की
शांत वादियाँ राष्ट्रीयता की भावनाओं से ओत-प्रोत गगनभेदी नारों से गूँजती
रहीं। विदेशी माल की होली जलने लगी। उधर स्वदेशी और चरखे के प्रति ऐसा उत्साह
उमड़ा कि, होली गीतों में महिलाओं के कंठ से 'मान ले सैंया हमार मोहे चरखा
मँगाय दे' के स्वर स्वतः ही फूटने लगे।"9
स्वाधीनता आंदोलन को कुमाऊँनी होलियों ने भी अभिव्यक्ति दी। स्वदेशी वस्तुओं
के प्रति आग्रह होली गीतों में स्पष्टतः परिलक्षित होने लगा। स्त्रियाँ अपने
पतियों से साड़ी-गहने न माँगकर चरखा माँगती हैं -
मान ले सैंया हमार रे, मोहे चरखा मँगा दे।।
ऑफी कातनँ, ऑफी बुनंनू,
ऑफी चलंनू व्यापार रे, मोहे चरखा मँगा दे।।
मानले सैंया हमार रे, मोहे चरखा मँगा दे।।
घाघरी स्वदेशी पिछौड़ी स्वदेशी,
विदेशी पलड़ा निवार रे, मोहे चरखा मँगा दे।।
मान ले...।।
लिया पैरिया जन विदेशी माल,
स्वदेशी को कर परचार रे, मोहे चरखा मँगा दे।"
मान ले...।।
ठगनैं में छन अंग्रेज व्यापारी।
मेटुंनी छ यो लूटमार रे, मोहे चरखा मँगा दे।
मान ले...।।"10
उद्धृत होली गीत, स्वाधीनता आंदोलन के दर्शन का कितना सुंदर अनुवाद है।
बिल्कुल लोक की भाषा में, लोक-ढंग से। लोक-गीत, अपनी प्रेषणीयता में बेमिसाल
होते हैं। यह बात इस गीत से सहज ही समझी जा सकती है। सीधा-सादा, मुश्किलों में
भरा कुमाऊँ का क्षेत्र किस तरह यह जान लेता है कि, अंग्रेज सुशासक नहीं हैं,
बल्कि शोषक हैं। देश की संपत्ति का दोहन करने वाले हैं। ठग हैं। इसलिए 'चरखा'
को प्रोत्साहित करके स्वदेशी वस्तुओं और स्वदेशी उद्योगों को अपनाना और बढ़ावा
दिया जाना चाहिए। यहाँ एक बात और ध्यातव्य है कि, पारंपरिक होली गीतों की भाषा
ब्रज थी तो इन गीतों की भाषिक भंगिमा बदल जाती है। ये ठेठ कुमाऊँनी बोली और
भाषा में प्रकट होते हैं।
गांधी जी राष्ट्र नायक हैं। यह बात कुमाऊँनी होली गीत भी प्रमाणित करते हैं -
"हुआ नया अवतार बंदे, भारत देश में गांधी का।।"11
स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक सुधार-उन्मुख भी था। समाज-सुधार की अभिव्यक्ति से
जुड़ी होलियाँ भी कुमाऊँ में प्रचलित थीं। फिरंगी राज शोषण-धर्म वाला है। इस
सत्य को कुमाऊँनी होली गीतों ने जोर-शोर से प्रचारित किया -
"इस फिरंगी राज की अजब लीला है।
लाट गवरनर चीफ कमिश्नर,
सुवा अहाता अलग मिला है।"12
कुमाऊँनी समाज जाग गया था। जागरण के प्रयास घर-घर तक पहुँच रहे थे। होली गीतों
में गाया जा रहा था कि, छोटे-मोटे बैर-भाव, आपस के भुलाकर सब एक हों और समाज
के लिए संगठित होकर लड़ें। शीघ्र ही अपना देश स्वतंत्र हो जाएगा और चारों तरफ
खुशहाली होगी -
"घर-घर बात पुजै दिया दाज्यू,
घर-घर बात पुजाई दिया हो।।
स्वराज की हवा चलि गैछ आब त,
ये में तुमलै समै जाया दाज्यू,
घर-घर बात पुजै दिया दाज्यू,
घर-घर बात पुजाई दिया हो।।
गौं-गौं में नर-नारिन में,
य अलख तुम जगै दिया दाज्यँ
घर-घर बात पुजै दिया दाज्यँ
छोटी-मोटी बात भूलि बैर दाज्यू,
फिरंगी को नाश कराइ दिया हो।
घर-घर बात पुजै दिया दाज्यँ"13
स्वाधीनता आंदोलन ने सामाजिक समरसता पर बल दिया था। ऊँच-नीच, छुआ-छूत, भेद-भाव
भारतीय समाज को कमजोर करने वाले हैं। ऐसे में असंगठित भारतीय स्वराज का बड़ा
लक्ष्य हासिल नहीं कर सकते हैं। यही बात कुमाऊँनी होली-गीतों में भी अभिव्यक्त
हो रही थी - 'सब मिलि होली तुम खेलो भला।' में यह बात प्रमुखता से रेखांकित की
गई है।
भारतीय समाज का जागरण, आत्माभिमान का जागना था। यह बात होली गीतों में दर्ज
है। अब यह देश गुलाम नहीं रहेगा। आजाद होने तक विश्राम नहीं करना है - "आब नै
रूँन द्यां ये देश गुलाम।"14
कुमाऊँनी होली-गीतों में भगवान श्री कृष्ण से स्वराज दिलाने की उत्कट कामना भी
की गई है। इस गीत में कहा गया है कि, जनता बहुत दुखी है, भूखी-प्यासी है, हम
सबको प्रभु! आजादी दिला दो। आपके अत्यंत आभारी होंगे। यह एक तरह से अर्जी है।
कुमाऊँनी समाज की। यह इस समाज की उत्कट स्वराज-लालसा की वाणी है।
संक्षेप में कुमाऊँनी होली-गीत अपनी सांस्कृतिक पहचान की सुरक्षा की चिंता का
परिणाम होने के साथ ही साथ प्रकृति, पर्यावरण-प्रेम व स्वाधीन-चेतना की
अभिव्यक्ति भी हैं। ये लोक की प्रयोग-धर्मिता, प्रगतिशीलता, समायोजन की शक्ति
के अनूठे उदाहरण भी हैं। एक वाक्य में कहा जाए तो यह कहना उचित होगा कि, ये
होली-गीत परंपरा और प्रयोगशीलता के समन्वित रूप हैं। लोक की शक्ति और उसकी
चुनौतियों से निबटने की रणनीति के परिचायक भी हैं।
संदर्भ
-
1.
कुमाऊँ का इतिहास, पृ.-1
2.
वही, पृ.सं.-691
3.
छाई रौ तलमल देश, कुलदीप उप्रेती, पृ.-8
4.
भोजपुरी लोकगाथा, पृ.-181
5.
खड़ी होली क्रमांक 52, छाई रौ तलमल देश, पृ.-73
6.
घर ही रहो हे सुकुमारी, खड़ी होली क्रमांक-157, छाई रौ तलमल देश, पृ.-180
7.
खड़ी होली क्रमांक-26 छाई रौ तल-मल देश।
8.
करी तपस्या घोर कुँवर, खड़ी होली, क्रमांक-76, वही, पृ.-9
9.
छाई रौ तल-मल देश, पृ.-196
10.
छाई रौ तल-मल देश, पृ.-200
11.
हुआ नया अवतार वंदे - वही, पृ.-201
12.
इस फिरंगी राज की अजब लीला है, वही, पृ.-203
13.
घर-घर बात पुजै दिया दाज्यू, पृ.-204
14.
छाई रौ तल-मल देश, पृष्ठ-206